मुक्ताकाश की सैर -
मन तो करता है कि कभी कभी मुक्ताकाश में साथ साथ सैर करने जाए,
कभी तितली बन के उड़े तो कभी चिड़िया सा चहचहाये ,
कभी दरख्तों की शाख़ बन घरौंदों की अवलि सजाएं,
तो कभी घने पीपल के पत्तो की तरह समीर संग गुनगुनाये ।
कभी किसी जलधारा के निर्मल तटबंध होकर शीतलता का एहसास करते जाये,
तो कभी लहरों की तरह किलोल करे,खेले औऱ इठलाये ।
कभी श्याम मेघो की घटाओ को रथ बना भुवन भ्रमण कर आये ।
तो कभी नीले अम्बर को कैनवास बना नई तस्वीर गढ़ जाए ।
कभी भास्कर के प्रखर आलोक में समाहित हो स्व को मिटा जाये,
तो कभी रश्मिरथ पर आरूढ़ हो चाँद तारो को घुम आये ।
कभी हाथों में हाथ डाले घूमने जाए औऱ एक दूजे की पलको में कैद हो जाये ।
तो कभी आपस मे फ़ूल औऱ भौरें का खेल सजाए ।
तो आओ पहले अहम व वहम की सफाई कर मन की धरा को निर्मल बनाये ।
फिर परस्पर प्रेम एवं विश्वास के सतरंगी कुसुम बीज लगाये ।
तब तथाकथित व्यस्तता की खतपतवार हटा परस्पर आदर व सम्मान की खाद डालते जाए ।
फिर ऐसे श्रेष्ठ व पवित्र विचारो के जल से सिंचित मुक्ताकाश में ख़्वाब सजाये ।
--योगेश्वर