सुनो जरा मोल दाने का लगाने वालों लेखक बलरामरोरियाशिक्षकडबरा

माटी में सना ,माटी से बना

माटी में रंगा, माटी में बसा

वो किसान क्यों बेबस हुआ?

जीवन उगाकर जिसने जीवन दिया

मोल उसका मिट्टी क्यों हुआ?


सुनो ,ज़रा मोल दाने का लगाने वालों

कुछ भाव इनका भी हमें बतलाओ ना

धरती की धानी ओढ़नी का 

मोल क्या होगा ज़रा समझाओ ना?

उन पैरों की ख़ूनी बिवाइयों का

तोड़ कोई ले आओ ना 

जाड़े की ठिठुरती अधसोई रातों का

हिसाब ठीक ठीक लगाओ ना


मसलना निरीह को सदा ही

शौक सत्ताधीशों का रहा है

नहीं सुन पाते हैं अब वो

अर्ज़ियाँ बेबस और लाचारों की

दोष इसमें उनका है ही नहीं

सब दोष सिंहासन का है

उदर हैं सन्तुष्ट जिनके

वो अधखाये की पीर कैसे जान पाएंगे?

सुनाकर फ़रमान अपना

तुझे खेतों में ही फेंक आएंगे

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